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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 9 
देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों सखियां बाहर खेलने चली गईं । जयंती अल्पाहार की व्यवस्था करने हेतु रसोई में चली गई तो महारानी भी जयंती के पीछे पीछे चल दी । वे दोनों बातें करने लग गईं । 

महाराज वृषपर्वा और शुक्राचार्य अकेले रह गये । उचित अवसर जानकर महाराज वृषपर्वा ने कहा "हे आचार्य, आप दैत्यों के गुरू हैं । आप साक्षात ब्रह्मा , विष्णु, महेश हैं । वेद, उपनिषद , शास्त्र आपके दास हैं । नीति आपकी चेरी है । विद्या आपकी सहचरी है । तेज आपका साथी है । आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साक्षात स्वरूप हैं । मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि एक राजा का क्या धर्म है ? उसे किस प्रकार अपना राज्य संचालित करना चाहिए ? आप विस्तार से समस्त बातें मुझे बतलाइये जिससे मैं अपने राज्य का संचालन शास्त्र सम्मत विधि से कर सकूं" । 

महाराज वृषपर्वा की बातें सुनकर शुक्राचार्य जी प्रसन्न हो गये । वे कहने लगे "राजन ! आपकी बातें सुनकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है । मुझे यह जानकर और भी अधिक प्रसन्नता हो रही है कि आप अपने राज्य का संचालन शास्त्र सम्मत रीति से करना चाहते हैं । मैं आपको इस संबंध में वे बातें बताऊंगा जो देवर्षि नारद जी ने महाराज भक्त प्रह्लाद को बताई थी" । शुक्राचार्य जी चुप हो गए । 
"आचार्य, मैं आपके मुख से देवर्षि नारद की वाणी सुनना चाहता हूं । देवर्षि ने राजा के क्या क्या कर्तव्य बताये हैं ? राजा को कितना कर लेना चाहिए ? इस कर रुपी धन का क्या उपयोग किया जाये ? वगैरह वगैरह , सब बातें स्पष्ट रूप से बताइये" । 
"ठीक है राजन ! देवर्षि नारद ने जो ज्ञान महाराज प्रह्लाद को दिया था, वही ज्ञान मैं आपको बताने जा रहा हूं । ध्यानपूर्वक सुनना" । 

राजा का मुख्य धर्म है प्रजा का पालन करना । प्रजा को पुत्रवत समझ कर उसका पालन पोषण करना । जिस तरह एक पिता अपने समस्त पुत्रों का एक जैसा लालन पालन करता है उसी तरह एक राजा को भी अपनी समस्त प्रजा का वर्ण , मत , लिंग , रंग , पेशेगत भेदभाव के बिना एक ही तरह से पालन पोषण करना चाहिए । दीन दुखी , असहाय , अबला , विकलांगों पर विशेष कृपा करनी चाहिए । 

धर्म, अर्थ और काम जैसे पुरुषार्थ को प्रजा के हित के लिए काम में लेना चाहिए । धर्म मय आचरण करते हुए शास्त्रों द्वारा निर्धारित रीति से अर्थोपार्जन करते हुए उचित कामभोग के सेवन करते हुए उत्तम और उदार व्यवहार करना चाहिए । अर्थात धर्म, अर्थ और काम का सेवन करते हुए त्रिवर्ग सेवन करना चाहिए । 

"ये त्रिवर्ग सेवन क्या होते हैं, आचार्य" । महाराज वृषपर्वा ने जिज्ञासा प्रकट की 
"दक्ष स्मृति में त्रिवर्ग सेवन का उल्लेख किया गया है राजन । त्रिवर्ग में दिन को तीन भागों में बांटा गया है । दिन के पूर्वान्ह काल में धर्म का आचरण करना चाहिए । मध्यान्ह काल में धनोपार्जन का कार्य करना चाहिए और रात्रि काल में काम का सेवन करना चाहिए । एक राजा में कितने गुण होने चाहिए, क्या आपको पता है राजन" ? 
महाराज ने इंकार की मुद्रा में गर्दन हिला दी । तब शुक्राचार्य कहने लगे "एक राजा में निम्न छ: गुण होने चाहिए 
1 व्याख्यान शक्ति :- एक राजा को अपनी बात तर्क पूर्ण तरीके से रखने की योग्यता होनी चाहिए । राज कार्य संचालन में जो नीति वह बना रहा है उसे अपने मंत्रियों , सभासदों और अमात्यों सहित संपूर्ण कर्मचारियों को भली भांति समझाने की योग्यता होनी चाहिए तभी वह अपनी नीतियों को ढंग से लागू करवा सकता है । इसलिए उसकी व्याख्यान शक्ति बहुत सुन्दर होनी चाहिए । 
2 प्रगल्भता  :- प्रगल्भता मतलब चतुराई, होशियारी अथवा बुद्धिमत्ता । एक मूर्ख राजा न केवल अपना अपितु अपने राज्य का सत्यानाश कर देता है अत: उसमें इतनी बुद्धि होनी चाहिए जिससे वह सही निर्णय ले सके । 
3 तर्क कुशलता :- एक राजा को तर्क कुशल होना चाहिए नहीं तो उसे कोई भी व्यक्ति अपनी बातों में उलझा कर रख सकता है । दूसरे राज्यों के साथ किस तरह व्यवहार किया जाये उनसे अपनी बात कैसे मनवाई जाये, इसके लिए तर्क कुशल होना आवश्यक है । 
4 तीव्र स्मरण शक्ति : - भूतकाल में क्या क्या निर्णय लिये गये हैं और भूतकाल के अनुभव कैसे रहे हैं, इन सबको स्मरण रखने की शक्ति होनी चाहिए । इसके अभाव में परस्पर विरोधी निर्णय हो सकते हैं जिससे असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो सकती है । 
5 भविष्य द्रष्टा :- एक राजा न केवल भूतकाल की स्मृतियों को संजोकर रखने वाला होना चाहिए अपितु उसे भविष्य द्रष्टा भी होना चाहिए । उसके कार्य, व्यहवार और नीतियों से भविष्य में क्या असर होगा, इसका ठीक ठीक अनुमान लगाने की शक्ति उसमें होनी चाहिए । 
6 नीति निपुणता :- एक राजा को नीति निपुण होना चाहिए । धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और लोक नीतियों को समझ कर उनके अनुसार कार्य करने की निपुणता होनी चाहिए । इस प्रकार एक राजा में ये छ: गुण होना आवश्यक है । इसके अतिरिक्त उसे सात उपाय यथा मन्त्र, औषध, इन्द्रजाल , साम , दान, दण्ड और भेद भी आने चाहिए जिससे आवश्यकता के समय वांछित उपायों का सहारा लेकर अपना काम निकाल सके । 
एक राजा को देश, दुर्ग, रथ, हाथी, घोड़े, शूर, सैनिक, अधिकारी, अन्त:पुर, अन्न, गणना, शास्त्र, लेख्य, धन और असु (बल) इनके जो चौदह अधिकारी हैं , उनकी परीक्षा समय समय पर लेनी चाहिए जिससे वे सदैव चुस्त-दुरुस्त बने रहें । उसे अपने शत्रुओं का पता होना चाहिए । शत्रु के बल , अबल का ध्यान होना चाहिए । शत्रु से युद्ध करना है या संधि, इसका भान भी उसे होना चाहिए । 
एक राजा को अपने धन और कोष की वृद्धि के लिए निम्न आठ कर्म निरंतर करते रहने चाहिए अन्यथा राजकोष रिक्त हो सकता है 
1 खेती का विस्तार 
2 व्यापार की रक्षा 
3 दुर्ग का निर्माण और उसकी रक्षा करना 
4 पुलों का निर्माण और उनकी सुरक्षा करना 
5 हाथियों की सार संभाल 
6 सोने , चांदी , हीरे जवाहरातों की खानों पर अधिकार 
7 कर की उचित प्रकार से वसूली 
8 निर्जन जगहों पर लोगों को बसाना 
इस प्रकार मनीषियों ने एक राजा के ये आठ संधान कर्म बताये हैं । 

एक राजा को अपने सात प्रकार के अधिकारियों दुर्गाध्यक्ष, बलाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, वैद्य और ज्योतिष पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए कि कहीं ये लोग राज्य के शत्रु पक्ष से मिल तो नहीं गये हैं ? श्रेष्ठ गुप्तचर होने चाहिए जिनसे राज्य के अंदर और बाहर होने वाले षड़यंत्रों की जानकारी समय पर हो सके और उन्हें विफल किया जा सके । 
एक राजा को शिक्षकों पर विशेष ध्यान देना चाहिए । शिक्षा प्रदान करने के लिए धर्म और संपूर्ण शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वानों को ही नियुक्त किया जाना चाहिए क्योंकि हजारों मूर्ख पैदा करने से भी अधिक श्रेयस्कर एक पण्डित पैदा करना है । क्योंकि विद्वान पुरुष ही संकट के समय राज्य को बचा सकता है । 
राजन , राज्य के कल्याणकारी कार्यों का आधार है कर प्रणाली । कर न तो बहुत अधिक लगाये जाने चाहिए और न ही बहुत कम । अधिक कर लगाने का परिणाम यह होगा कि लोग अपने राज्य को छोड़कर दूसरे राज्य में बस सकते हैं । और कम कर लगने के कारण कोष अपर्याप्त रहता है जिससे कल्याणकारी कार्य करने में धनाभाव बहुत बड़ा कारण बन जाता है । इसी प्रकार दण्ड व्यवस्था भी सुचारू रूप से होनी चाहिए । अपराधी , चोर लुटेरों को शीघ्र ही दण्डित किया जाना चाहिए जिससे अपराधियों में भय व्याप्त हो जाये और वे आगे अपराध नहीं कर पायें । 
महाराज , एक राजा को गौ, गंगा और गौरी पर विशेष रूप से दृष्टिपात करते हुए इनका पर्याप्त संरक्षण करना चाहिए  क्योंकि ये तीनों ही मनुष्य जाति को पालने का कार्य करती हैं । गंगा का अर्थ यहां संपूर्ण नदियां हैं और गौरी का अर्थ यहां मातृ शक्ति से है । गाय , नदियां और मातृ शक्ति सबका पालन पोषण करती हैं इसलिए एक राजा का कर्तव्य है कि वह इनका पोषण, संरक्षण और संवर्धन करे । 
एक राजा को स्त्रियों के आचरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए कि कहीं उसके राज्य में स्त्रियां स्वच्छंद कामाचार तो नहीं कर रही हैं ? स्त्रियों के पतित होने पर परिवार और समाज का पतन हो जाता है । यौन अपराधों पर सख्ती से दण्ड दिया जाना चाहिए जिससे कामातुर लोग यौन अपराधों में लिप्त नहीं हो सकें । 

इस प्रकार शुक्राचार्य ने महाराज वृषपर्वा को एक राजा के कर्तव्यों और उसके गुणों के बारे में बताया । उन्होंने आगे कहा कि "हे राजन ! आपको राजा शिबि की कथा से एक राजा के प्रजा पालन की सीख लेनी चाहिए"
"आचार्य , राजा शिबि का आख्यान सुनाने की कृपा करें जिससे उनके प्रजा पालन के गुणों से लाभान्वित होने का मुझे सुअवसर मिल सके" 

शुक्राचार्य ने राजा शिबि की कथा प्रारंभ की 

क्रमश : 

श्री हरि 
1.5.23 

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